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त्रा॒तार॒मिन्द्र॑मवि॒तार॒मिन्द्र॒ꣳ हवे॑हवे सु॒हव॒ꣳ शूर॒मिन्द्र॑म्। ह्वया॑मि श॒क्रं पु॑रुहू॒तमिन्द्र॑ꣳ स्व॒स्ति नो॑ म॒घवा॑ धा॒त्विन्द्रः॑ ॥५० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्रा॒तार॑म्। इन्द्र॑म्। अ॒वि॒तार॑म्। इन्द्र॑म्। हवे॑हव॒ इति॒ हवे॑ऽहवे। सु॒हव॒मिति॑ सु॒ऽहव॑म्। शूर॑म्। इन्द्र॑म्। ह्वया॑मि। श॒क्रम्। पु॒रु॒हू॒तमिति॑ पुरुऽहू॒तम्। इन्द्र॑म्। स्व॒स्ति। नः॒। म॒घवेति॑ म॒घऽवा॑। धा॒तु॒। इन्द्रः॑ ॥५० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:50


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष ! जिस (हवेहवे) प्रत्येक संग्राम में (त्रातारम्) रक्षा करने (इन्द्रम्) दुष्टों के नाश करने (अवितारम्) प्रीति कराने (इन्द्रम्) उत्तम ऐश्वर्य के देने (सुहवम्) सुन्दरता से बुलाये जाने (शूरम्) शत्रुओं का विनाश कराने (इन्द्रम्) राज्य का धारण करने और (शक्रम्) कार्यों में शीघ्रता करनेहारे (पुरुहूतम्) बहुतों से सत्कार पाये हुए तथा (इन्द्रम्) शत्रुसेना के विदारण करनेहारे तुझको (ह्वयामि) सत्कारपूर्वक बुलाता हूँ सो (मघवा) बहुत धनयुक्त (इन्द्रः) उत्तम सेना का धारण करनेहारा तू (नः) हमारे लिये (स्वस्ति) सुख का (धातु) धारण कर ॥५० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य उसी पुरुष का सदा सत्कार करें जो विद्या न्याय और धर्म्म का सेवक, सुशील और जितेन्द्रिय हुआ सब के सुख को बढ़ाने के लिये निरन्तर यत्न किया करे ॥५० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(त्रातारम्) रक्षितारम् (इन्द्रम्) दुष्टविदारकम् (अवितारम्) प्रीणयितारम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यप्रदम् (हवेहवे) युद्धे युद्धे (सुहवम्) सुष्ठ्वाह्वानम् (शूरम्) शत्रुहिंसकम् (इन्द्रम्) राज्यधारकम् (ह्वयामि) आह्वयामि (शक्रम्) आशुकर्त्तारम् (पुरुहूतम्) पुरुभिर्विद्वद्भिराहूतम् (इन्द्रम्) शत्रुदलविदारकम् (स्वस्ति) सुखम् (नः) अस्मभ्यम् (मघवा) परमपूज्यः (धातु) दधातु (इन्द्रः) प्रशस्तसेनाधारकः ॥५० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष ! यं हवेहवे त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्रं सुहवं शूरमिन्द्रं शक्रं पुरुहूतमिन्द्रं त्वां ह्वयामि स मघवेन्द्रस्त्वं नः स्वस्ति धातु ॥५० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यास्तमेव सर्वदा सत्कुर्युर्यो विद्यान्यायधर्मसेवकः सुशीलो जितेन्द्रियः सन् सर्वेषां सुखवर्द्धनाय प्रयतेत ॥५० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी त्याच पुरुषाचा नेहमी सन्मान करावा. जो विद्या, न्याय व धर्म यांचा पुरस्कर्ता, सुशील, जितेंद्रिय असतो, तसेच सर्वांचे सुख वाढविण्याचा प्रयत्न करतो.